Tuesday, March 12, 2013

नीतीश के खिलाफ लामबंदी तेज


फ़ज़ल इमाम मल्लिक
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चौतरफा घेरेबंदी शुरू हो गई है। एक तरफ सहयोगी भाजपा नरेंद्र मोदी के सवाल पर उनके साथ कोई समझौता करने के मूड में नहीं लगती तो दूसरी तरफ ठेका शिक्षकों पर पुलिसिया लाठी चार्ज के मामले में उन्हें सुप्रीम कोर्ट को सफाई देनी पड़ रही है। विरोधी दल तो इस मुद्दे को भुनाने का प्रयास कर ही रहे हैं। पिछड़ी कुर्मी जाति के नीतीश के वोटबैंक में सेंध लगाने की कोशिश में अब उपेंद्र कुशवाहा भी जुट गए हैं। कुशवाहा  जद (एकी) के राज्यसभा सदस्य थे। लेकिन पिछले दिनों नीतीश पर अधिनायकवाद का आरोप लगा उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता और जद (एकी) दोनों से नाता तोड़ लिया। कुशवाहा ने अपनी अलग राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी बना ली है।
नियोजित व वित रहित शिक्षकों के प्रदर्शन और पुलिसिया दमन से आलोचना में घिरे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की परेशानी कम होने का नाम नहीं ले रही है। इन सब के बीच उनके कई पुराने साथियों ने उनका साथ छोड़ कर उनकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। सिर्फ साथ छोड़ते तो नीतीश कुमार की परेशानी नहीं बढ़ती लेकिन दो महीने पहले तक जद (एकी) के सांसद रहे उपेंद्र कुशवाहा ने नई पार्टी का एलान कर नीतीश कुमार को संकट में डाल दिया है। नीतीश पिछड़ों की राजनीति करते हैं और उपेंद्र भी पिछड़ी जाति कोयरी से आते हैं। बिहार में उनकी आबादी तकरीबन बारह फीसद है और यह तादाद कुशवाह की राजनीतिक जमीन के लिए काफी है। उनकी जाति के लोग उनके पीछे खड़े हैं क्योंकि उन्हें लगने लगा है कि उपेंद्र को नीतीश ने छला है। इसकी एक बड़ी वजह उपेंद्र कुशावहा का पार्टी और राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र भी है। उनका कार्यकाल करीब चार साल बाकी था और वे चाहते तो खामोशी के साथ सत्ता का सुख भोग सकते थे। लेकिन नीतीश की तानाशाही की वजह से उन्होंने सत्ता का मौह त्याग कर नए सिरे से संघर्ष का रास्ता चुना। यह भी सही है कि दो बार पहले भी वे नीतीश का साथ छोड़ कर गए थे लेकिन बाद में फिर उनके साथ हो लिए। लेकिन इस बार वे आरपार की लड़ाई के मूड में हैं। उपेंद्र कुशवाहा ने तीन मार्च को पटना के गांधी मैदान में बड़ी रैली की जिसमें बिहार के हर जिले से लोग आए थे। रैली में करीब दो लाख लोगों की शिरकत से कुशवाहा उत्साहित हैं। इसकी एक वजह तो यह भी है कि बीते साल नवंबर में जद (एकी) की अधिकार रैली में इतनी भीड़ नहीं जुट पाई थी, जबकि सरकार ने लोगों को लाने के लिए हर तरह की सुविधा मुहैया कराई थी। नए बने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी केउपेंद्र राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए हैं। बाकी पदाधिकारियों का चयन होना बाकी है।
 लेकिन यह बात साफ है कि राष्ट्रीय लोक समता पार्टी में जातीय गणित का खास ख्याल रका गया है। जहानाबाद के पूर्व सांसद और कभी नीतीश के करीबी रहे डा. अरुण कुमार अगड़ी जाति से आते हैं, इनके अलावा शंकर झा आजाद, विज्ञान स्वरूप सिंह, संजय वर्मा भी हैं तो पिछड़ी जाति से ही सतीश कुमार आते हैं। पूर्व सांसद अरुण कुमार को पार्टी का बिहार का सूबेदार बना दिया है। अरुण कुमार अगड़ी भूमिहार जाति के हैं। सुधांशु शेखर भास्कर और बिवट पासवान दलित चेहरा है तो मुसलमानों को भी पार्टी ने न सिर्फ साख लिया है बल्कि खासी तरजीह दी है। पूर्व मंत्री डा लुतुफुर रहमान और नूर हसन आजाद पार्टी में काफी सक्रिय हैं। पार्टी का सारा जोर जातिय गणित पर तो है ही, अतिपिछड़ों, महादलितों और मुसलमानों को गोलबंद करने में भी है। माना जारहा है कि राष्ट्रीय और प्रदेश इकाई में इस जातिय संतुलन को बनाए रखा जाएगा। बिहार में अगड़ी जाति लालू यादव से नाराज थी और इस नाराजगी के वजह से कोई और विकल्प नहीं देख कर अगड़ों ने नीतीश् का साथ दिया था। लेकिन नीतीश के राज में भी उन्हें बहुत तवज्जो नहीं मिली, इससे अब अगड़े उनसे भी नाराज हैं। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी एक विकल्प के तौर पर उनके सामने है। इसलिए नई पार्टी उन्हें साधने में किसी तरह की कोताही नहीं दिखाएगी। ऐसा माना जा रहा है कि प्रदेश इकाई की कमान या तो किसी अल्पसंख्यक को सौंपी जाएगी या फिर किसी अगड़ी जाति को, ताकि प्रदेश में साफ संदेश जाए।
  रैली में आयोजकों ने यह साफ कर दिया कि बिहार में बदलाव की लड़ाई शुरू हो गई है और उसकी अगुआई राष्ट्रीय लोक समता पार्टी करेगी। यह भी इत्तफाक ही है कि इस रैली के आयोजकों में कई चेहरे ऐसे हैं, जो समता पार्टी के निर्माण के समय भी सक्रिय थे। ये चेहरे हैं-उपेंद्र कुशवाहा, अरुण कुमार और सतीश कुमार। यही वजह है कि रैली में जॉर्ज फर्नांडीज की चर्चा भी खूब हुई। यह भी कम दिलचस्प नहींं है कि बरसों पहले जब समता पार्टी का गठन किया गया था, तब नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की बात कही गई थी और इस बार लोक समता पार्टी के गठन के दौरान नीतीश की तानाशाही प्रवृति के खिलाफ बिुगल फूंका गया और उन्हें सत्ता से बेदखल करने की बात कही गई।
 रैली में यह भी साफ हुआ कि राज्य में सत्ता परिवर्तन के लिए नई पार्टी नए दोस्तोंको तलाशेगी। हालांकि अभी यह साफ नहींं हुआ है कि नई पार्टी किन ‘दोस्तों’ का साथ लेगी, लेकिन जो भी होंगे वे ऐसे होंगे उन्हें कुशवाहा के नेतृत्व में विश्वास रखना होगा। वैसे यह जानना भी कम दिलचस्प   नहींं है कि भाजपा और जद (एकी) के कम से कम तीन दर्जन विधायकों ने इस नई पार्टी में दिलचस्पी ली है और इस बात का इरादा जाहिर किया है कि अगर उन्हें इस नई पार्टी में सम्मान मिले तो वे नीतीश का साथ छोड़ने के लिए तैयार हैं।
 नई पार्टी के लिए यह बात भी महत्त्वपूर्ण थी कि इसमें बिहार के सभी जिलों से लोग आए थे और नीतीश के गृह जिले से भी बड़ी तादाद में लोगों ने इसमें शिरकत की थी। 
उधर, नीतीश समर्थक दावा कर रहे हैं कि इक्का-दुक्का नेताओं के साथ छोड़ने से नीतीश पर कोई फर्क नहीं पड़ा। पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव के नतीजे इसके प्रमाण हैं। गौरतलब है कि नीतीश से नाराज होकर दिग्विजय सिंह और राजीव रंजन सिंह जैसे कई नेता अलग हुए थे। दिग्विजय तो बांका में अपना दुर्ग बचाने में सफल हो गए थे पर राजीव रंजन सिंह नीतीश से अलग होकर हाशिए पर चले गए। कुशवाहा नीतीश को अकेले चुनौती देने की चूक नहीं करना चाहते। वे नीतीश से खफा हर छोटे-बड़े नेता को लामबंद करने में जुट गए हैं। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की नजर नीतीश से नाराज अगड़ी जातियों पर भी टिकी हैं। जो अभी भाजपा या कांग्रेस के साथ तो हैं पर लालू और पासवान के साथ कतई जाना नहीं चाहती। लालू से अलग होकर जब जनता दल के नेताओं ने जार्ज फर्नांडिज की अगुवाई में समता पार्टी बनाई थी तो उपेंद्र कुशवाहा भी उसमें अग्रणी थे।
नीतीश जब दूसरी बार सत्ता में आए थे तो उन्होंने दावा किया था कि और कुछ हुआ हो या नहीं पर उनकी सरकार के पहले कार्यकाल में बिहारियों का स्वाभिमान बहाल हुआ है। उन्होंने बिहार से पलायन रोक देने के भी दावे किए थे। पर कुशवाहा के साथी अरुण कुमार का दावा है कि अभी भी लाखों बिहारी रोजगार के लिए सूबे से पलायन कर रहे हैं। कुशवाहा ने अपनी पटना की रैली में उत्तर प्रदेश की विधायक अनु प्रिया पटेल को खासतौर पर बुलाया था। जो उत्तर प्रदेश के कुर्मियों के सबसे असरदार नेता रहे सोनेलाल पटेल की बेटी हैं।
बिहार की राजग सरकार के खिलाफ आयोजित रैली में आम जनता की समस्याओं के प्रति संघर्ष का संकल्प लिया गया। नई पार्टी की प्राथमिकता युवा और किसान होंगे, जबकि इसकी नीतियां सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर तय होगी।  कुशवाहा ने पार्टी के नाम की घोषणा करते हुए पार्टी का प्रमुख नारा- ‘जय किसान-जय नौजवान, हम सब मिलकर करेंगे बिहार का नवनिर्माण’ भी लोगों के सामने रखा। कुशवाहा का कहना है कि आपातकाल के बाद पहली बार प्रदेश में लोकतंत्र के समक्ष चुनौती आई है। जनतांत्रिक संस्थाएं कमजोर हो गई हैं, राजनीतिक कार्यकर्ता हाशिए पर हैं। अधिकारियों और अपराधियों का बोलबाला है। उन्होंने कहा कि शिक्षा- स्वास्थ्य के क्षेत्र में गिरावट, महादलित, अल्पसंख्यक, अतिपिछड़ों की उपेक्षा हो रही है। वित्त रहित शिक्षा की चर्चा करते हुए कहा कि अनुदान राशि बांटने के नाम पर सभी का शोषण हो रहा है। बेरोजगारी के कारण बड़े पैमाने पर पलायन जारी है। नौजवानों की सबसे बड़ी दुश्मन वतर्मान राज्य सरकार है। उन्होंने कहा कि लोगों की हर समस्या को उनकी पार्टी उठाएगी। अपनी पूरी टीम के साथ अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे। उन्होंने यह भी साफ किया कि अब भविष्य में वे गलती नहीं करेंगे और नीतीश के साथ नहीं जाएंगे।
 पूर्व सांसद अरुण कुमार का कहना है कि पलायन कर 59 लाख बिहारी सूबे से बाहर रह रहे हैं। वे हर साल 16,000 करोड़ रुपए भेजते हैं। यह एक समानांतर अर्थव्यवस्था है। सरकार ने शिक्षा का स्तर पूरी तरह से चौपट कर दिया है। ‘ई-गवर्नेस’ के बदले सूबे में 'इल-गवर्नेस' है। उन्होंने कहा कि हमने नीतीश कुमार को बिठाने (गद्दी पर) में तन-मन-धन लगाया है तो उन्हें उठाने में भी तन-मन-धन लगा देंगे। चाणक्य ने ‘नंद वंश’ के साम्राज्य की समाप्ति के लिए संकल्प लिया, पूरा किया, हम भी इसे दोहराते हैं। रैली में उत्तर प्रदेश की विधायक और परिवर्तन पार्टी की नेता अनुप्रिया पटेल ने भी शिरकत की।
नए राजनीतिक दल के गठन के बाद कयासों का दौर भी शुरू हो गया है खास कर कुशवाहा के नए दोस्तों को लेकर चर्चा आम है। वैसे आम लोगों ने यह सुगबुगाहट है कि अगर पार्टी ने जमीनी स्तर पर काम किया तो वह नीतीश का विकल्प दे सकती है क्योंकि नीतीश के राज में आम लोग बेहाल हैं और कई स्तर पर भ्रष्टाचार के मामले सामने आने के बाद नीतीश का ‘सुशासन’ सवालों के घेरे में है। देखना दिलचस्प होगा कि उपेंद्र कुशवाहा और अरुण कुमार की यह नई पार्टी बिहार में विकल्प के तौर पर उभरती है या नहीं।
उधर, नीतीश के खिलाफ सियासी माहौल को हवा देने में प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की भूमिका भी है। उन्होंने राज्य में प्रेस की स्वतंत्रता नहीं होने का आरोप लगाकर नीतीश सरकार को नसीहत दी थी। नीतीश के करीबी भी इस आरोप को खारिज नहीं कर पाते कि तमाम अच्छाइयों के बावजूद नीतीश अगर किसी से चिढ़ जाएं तो प्रतिशोध के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। लोकतंत्र में इस तरह की असहिष्णुता एक नकारात्मक पहलू मानी जाती है। विरोधियों के इस आरोप को नीतीश भी नहीं नकार सकते कि तमाम कोशिशों, प्रचार और दावों के बावजूद अभी तक राज्य में किसी भी औद्योगिक घराने ने निवेश की कोई पहल नहीं की है। ऐसे में सूबे का पिछड़ापन दूर करने के दावे   हवाई ही साबित होंगे।
इन सबके बीच ही बिहार में वित रहित और नियोजित शिक्षकों का प्रदर्सन जारी है। पटना में शिक्षकों पर पुलिस के लाठी चलाने को लेकर भी नीतीश की आलोचना हो रही है। नियोजित शिक्षकों को नीतीश ने वोट बैंक के लिए नौकरी पर तो रख लिया लेकिन उनके वेतन मनरोगा मजदूरों से भी कम है। एक ही स्कूल में एक शिक्षक छत्तीस हजार वेतन पा रहा है तो दूसरे शिक्षक को छह हजार तनख्वाह दी जारही है। वेतन की इन विसंगतियों को लेकर ही शिक्षक आंदोलन कर रहे हैं। नीतीश के अधिकार यात्रा के दौरान भी शिक्षकों ने उनका जम कर विरोध किया था। अब इस आंदोलन के जोर पकड़ने से नीतीश की मुश्किलें बढ़ गई हैं।


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