Wednesday, November 21, 2012

शर्म उनको मगर नहीं आती !

  

फ़ज़ल इमाम मल्लिक

वह एक ऐतिहासिक क्षण था। लेकिन वह क्षण बहस-मुबाहसिों में ही खत्म हो गया और इन सबके बीच ही लोकपाल विधेयक कहीं बिला-सा गया। संसद में इतिहास बनना था लेकिन राजनीतिक दलों की नूरा कुश्ती और सांसद के रूप में कुछ विदूषकों की फूहड़ और मसखरेपन की वजह से लोकपाल पर जिस बहस की उम्मीद लगाए पूरा देश बैठा था वह सांसदों के हंसी-मज़ाक़ और अपने को श्रेष्ठ बताने में ही ख़त्म हो गया। भ्रष्टाचार देश में जिस तरह फल-फूल रहा है उसे रोकने के लिए शायद ही किसी सियासी दल ने गंभीरता से संसद में बहस में हिस्सा लिया। कुछ अनजान सांसदों और छोटे दलों ने ज़रूर इसे गंभीरता से लिया और लोकपाल विधेयक के हर पहलू पर चर्चा की। लेकिन अधिकांश दलों ने लोकपाल विधेयक से ज्Þयादा तवज्जो अण्णा हज़ारे को दी। उन्हें कोसने-गरियाने में ही समय ज्Þयादा लगाया। हर कोई अपने को महान बता कर संसद की गरिमा की दुहाई देता रहा। जबकि इसकी क़तई ज़रूरत नहीं थी।
देश के हर नागरिक को संसद के महत्त्व की जानकारी है। लेकिन लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान एक तरह से उन्होंने देश के अवाम को बार-बार यह चेताया कि वे कुछ नहीं है जो हैं हम हैं और हमसे ही देश का क़ानून है, संविधान है और देश हम से ही चल रहा है। लेकिन संसद की गरिमा की बात करते वक्Þत एक बात का ज़िक्र किसी ने भी नहीं किया। कर भी नहीं सकते थे। ग़ालिब के शब्दों में कहूं तो वे यह कैसे कह सकते थे कि ‘काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब’। संसद की गरिमा को सांसदों ने कितना और कब-कब नुक़सान पहुंचाया है, इसे बताने की ज़हमत किसी ने नहीं की। पैसे लेकर सवाल पूछने से लेकर संसद में नोट उछालने का कारनामा तो हमारे इन महान सांसदों ने ही किया है। संसद में एक-दूसरे पर जिस तरह आए दिन छींटाकशी की जाती रही है उसकी नज़ीर भी कम ही मिलती है। सदनों में एक दूसरे को गाली देना, मंत्री से विधेयक की प्रति लेकर फाड़ डालना, एक-दूसरे पर लात-घूंसे चलाना, कुर्सियां फेंकना, माइक तोड़ना अब तो देश में आम बात है। लेकिन वे सांसद-विधयक ठहरे उन्हें हर वह काम करने की छूट है जो आम लोगों के लिए एक तरह से वर्जित होती है। वे चाहे तो ट्रेन रुकवा दें, वे चाहें तो विमान में हंगामा खड़ा कर दें, वे जब चाहें अपनी तनख्वाहें बढ़वा लें, वे चाहें तो पुलिस और प्रशासन को सर के बल खड़ा कर दें, वे चाहें तो किसी को भी ज़लील करें, वे चाहें तो सदन को बंधक बना कर आम लोगों का करोड़ों का नुकसान करें, वे कुछ भी चाह सकते हैं और कुछ भी कर सकते हैं। वे ठहरे सांसद और बाकÞी ठहरे आम लोग जो उन्हें पांच साल के लिए चुन कर संसद-विधानसभा भेजती है लेकिन इन पांच सालों में वे आम लोग अछूत हो जाते हैं और साफ झकझक कपड़े पहने महंगी विदेशी गाड़ियों पर सवार सांसद ख़ास। यह ख़ास ही उन्हें दूसरों से अलग बनाता है। इसलिए लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान अण्णा हजÞारे और उनके सहयोगियों पर जिस तरह की टिप्पणियां की गईं वे इसी ख़ास होने के घमंड में की गई।
शरद पवार को चांटा मारने पर संसद एकराय होकर इस घटना की निंदा करती है। दक्षिण-पश्चिम, बाएं-दाएं सारी विचारधाराएं लामबंद होती हैं और एक सांसद या कहें के मंत्री को चांटा मारने के ख़िलाफ़ एक सिरे से निंदा प्रस्ताव पास करती है लेकिन यही नेता-सांसद जब आम आदमी को धमकाते हैं, उसे मारते हैं, उसे प्रताड़ित करते हैं तो संसद में चुप्पी रहती है और फिर बात पार्टी लाइन पर आकर ख़त्म हो जाती है। फिर आम अवाम को सियसात की मंडी महंगाई के तमाचे तो रोज़ जड़ रही है और क्या पक्ष, क्या विपक्ष सिर्फÞ गाल बजा रहे हैं। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ‘जादू की छड़ी’ नहीं होने की दलील देते हैं और विपक्ष संसद में सिर्फ़ तमाशा खड़ा करता है। गंभीरता से इस ‘तमाचे’ पर चर्चा तक नहीं करता। संसद का यह विरोधाभास है और सांसदों का यह दोहरा चरित्र। इसलिए लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान सांसदों के तेवर उन आम लोगों को लेकर तल्ख़ थे जो भ्रष्टाचार, महंगाई और सरकार की उदार नीतियों से परेशान ही नहीं तंगहाल हैं। उनकी कमाई रोज़ कम होती जा रही है और सांसदों-नेताओं की कमाई रोज़ बढ़ती जा रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, इस पर किसी ने सोचने की ज़हमत नहीं की। न तो वामपंथियों ने और न ही दक्षिणपंथियों ने। ग़रीबों की थाली की रोटी भले कम या छोटी होती जा रही हो लेकिन संसद की कैंटीन में महंगाई शर्मिंदा सी एक तरफ़ खड़ी अपने सांसदों को देसी घी में मालपुआ उड़ाते देखती है और फिर परेशान होकर बाहर आकर आम लोगों से उसका निवाला छीनने लगती है। यह सच न तो किसी गुरुदास दासगुप्ता को नज़र आता है और न ही सुषमा स्वराज को। भाषणों और नारों के बीच ही आम आदमी और आम हो जाता है और सांसद, और ख़ास होकर संसद से बाहर आता है। टीवी के कैमरे पर निर्लज्ज और बेशर्म मुस्कराहट के साथ अपनी पीठ थपथपाता है और अपने ख़ास होने के अहसास में थोड़ा और फूल जाता है।
ऐसे चेहरे लोकपाल विधेयक पर बहस के बाद ऐसी ही निर्लज्ज मुस्कान के साथ सदन के साथ बाहर आए थे। कैमरों की चमक में बाइटें देकर कारों में बैठ कर फुर्र हो गए थे। उनके निर्लज्ज चेहरे घमंड से तने थे और उन पर बेशर्मी से   लिखी इबारत साफ़ पढ़ी जा सकती थी। वह इबारत साफ़ कह रही थी कि किस माई के लाल में हिम्मत है जो लोकपाल विधेयक लाकर हम सांसदों के भ्रष्टाचार करने के अधिकार को छीन सके। ये चहरे संसद के अंदर तमतमा रहे थे और संसद के बाहर चमचमा रहे थे। इन चेहरों में फ़र्ख़ करना मुश्किल था। बस ऐसा लग रहा था कि हर चेहरा एक जैसा है जिसने लोकतंत्र को ही नहीं इस देश के उन लाखों अवाम की भावनाओं को आहत किया है जो महंगाई और भ्रष्टचार से परेशान है। इन चेहरों में तमीज़ करना मनुश्किल था कि कौन किसका चेहरा है। लालू यादव में मुलायम सिंह का अक्स नज़र आ रहा था और सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी जैसी दिख रहीं थीं। लालकृष्ण आडवाणी का चेहरा मनमोहन सिंह जैसा लग रहा था और गुरुदास गुप्ता के चेहरे पर ममता बनर्जी की छाप दिखाई दे रही थी। कई चेहरे, लेकिन हर चेहरा एक-दूसरे से मिलता-जुलता। पार्टियां गौण हो गर्इं थीं और चेहरे टीवी कैमरों की लाइटों में भकभका रहे थे। किसने किसको कोसा, किसने किसकी चापलूसी की, यह संसद में भी दिखा और संसद के बाहर भी। सदन से निकलने वाला हर चेहरा लालू यादव का चेहरा लग रहा था। लालू यादव जिन्होंने सदन में अपने भाषण के दौरान हर आर्थिक भ्रष्टाचार पर अपनी मुहर लगा दी थी। वे हर उस सांसद के जन संपर्क अधिकारी बन गए थे जो नहीं चाहते थे कि लोकपाल विधेयक पास हो और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे।
अपने भदेसपन और मसख़रेपन के लिए यों लालू यादव जाने जाते हैं, लेकिन संसद में उस दिन उन्होंने जो ‘गंभीर’ और ‘नायाब’ विचार रखे, उसने उनकी कुंठा, निराशा और अहंकार को सबके सामने लाकर रख दिया। पहले राजा-महाराजाओं के यहां विदूषक हुआ करते थे। संसद में इन दिनों यह भूमिका लालू यादव निभा रहे हैं। सरकार में शामिल होने की लपलपाती इच्छा ने उन्हें सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी के दरबार का विदूषक बना डला है। जो काम कांग्रेस नहीं कर पाई, लालू यादव के ज़रिए उसने करवा डाला। जेपी आंदोलन की कोख से निकले लालू यादव उसी कांग्रेस के साथ गलबंहिया कर रहे हैं, जिस कांग्रेस के ख़िलाफ़ जेपी ने आंदोलन छेड़ा था। बिहार में सत्ता में रहते हुए चारा घोटाले में फंसे और जेल गए लालू यादव संसद में भ्रष्टाचार पर जिस बेशर्मी से बोल रहे थे, वह राजनीति के चेहरे पर कालिख पोत रहा था। राजनीति का यही चेहरा है जिसे बचाने में कांग्रेस ही नहीं सारी पार्टियां लगी हैं। अण्णा हज़ारे को आप गाली देते हैं, दीजिए। अण्णा हज़ारे से जुड़े लोगों पर जुमले कसते हैं, कसें। सड़क पर उतरे लाखों लोगों को आप महज़ भीड़ बताते हैं, बताएं। लेकिन इससे पहले अपने गिरेबान में भी तो झांकें और अपनी क़मीज़ भी तो देखें कि वह कितनी दाग़दार और मैली है। लालू यादव को मुसलमानों की भी ख़ूब फ़िक्र है। लोकपाल विधेयक में वे अल्पसंख्यकों या यों कहें कि मुसलमानों को आरक्षण दिए जाने की पुरज़ोर वकालत कर रहे थे। लेकिन इन्हीं लालू प्रसाद को तब मुसलमानों की सुध नहीं आई जब सात साल पहले बिहार में रामविलास पासवान ने मुसलमान मुख्यमंत्री की शर्त पर उनकी पार्टी को समर्थन देने की बात कही थी। लेकिन तब राबड़ी देवी के नाम पर ही लालू अड़ गए थे। लालू अगर मान गए होते तो बिहार में नीतीश कुमार सत्ता में नहीं आते। लेकिन पार्टी को अपनी बपौती मान बैठे लालू को तब पार्टी में कोई मुसलमान नेता नज़र नहीं आया था। वे सत्ता को अपने पास ही रखना चाहते थे और राबड़ी देवी को हर हाल में मुख्यमंत्री बनवना चाहते थे। नतीजा आज सबके सामने है- न ख़ुदा ही मिला, न विसाले सनम। बिहार में सत्ता से बाहर तो हुए ही, दिल्ली में भी उनकी पूछ कम हुई। मुसलमानों की अनदेखी का नतीजा ही है यह कि लालू आज न सिर्फÞ बिहार में सत्ता से बेदख़ल हुए बल्कि केंद्र में अब वे विदूषक की भूमिका में नज़र आ रहे हैं। तब कांग्रेस लालू के साथ बिहार में ताल से ताल मिलाने का खेल खेल कर रही थी। तब कांग्रेस पार्टी ने दिग्विजय सिंह को बिहार का प्रभारी बना रखा था। आज मुसलमानों की मसीहा बने बैठे ठाकुर दिग्विजय सिंह ने रामविलास पासवान की मांग को अव्यवहारिक कहा था। आज वे मुसलमानों को लुभाने के लिए हर खेल खेल रहे हैं। लेकिन मुसलमानों के लिए किया जा रहा यह सारा तमाशा किसी ‘विधवा विलाप’ से ज्Þयादा कुछ नहीं है।
लोकसभा में भ्रष्टाचार पर लालू प्रसाद यादव को देखते-सुनते हुए यह लग रहा था कि वे उन लोगों की भाषा बोल रहे हैं जो नहीं चाहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके। कभी लालू मंडल-मसीहा के तौर पर जाने जाते थे। लेकिन आज उनकी भूमिका बदल गई है। वे उनकी हिमायत में खड़े हैं जो देश को लूटने का काम कर रहे हैं। वे बिना किसी लाग-लपेट के उन लोगों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं जो करोड़ों का भ्रष्टाचार कर रहे हैं। इनमें सियासतदां भी है और नैौकरशाह भी, बिचौलिए भी हैं और बाबुओं की जमात भी। संसद में लोकपाल पर बोलते हुए वे इन लोगों के नायक के तौर पर उभरे। जबकि इससे पहले यही वह तबक़ा था जो उनके गंवई अंदाजÞ पर उनका मज़ाक उड़ाया करता था। लालू यादव ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा कि अगर पार्टियों ने विप जारी नहीं किया तो इस विधेयक को पांच फीसद सांसदों का समर्थन भी शायद ही मिले। लेकिन   आमतौर पर उनकी बात पर टीका-टिप्पणी करने वाले सांसदों में से किसी ने भी सदन में लालू यादव की इस बत का खंडन करने की कोशिश नहीं की। ज़ाहिर है कि उनका मौन समर्थन उन्हें था और लालू वही बोल रहे थे जो वे चाह रहे थे। लेकिन लोकपाल विधेयक को फांसी घर बोलते हुए लालू यह भूल गए कि संसद से बाहर भी एक दुनिया है। वह दुनिया आम लोगों की दुनिया है, जो हर पांच साल बाद अपनी दुनिया में हर नेता को अपनी शर्तों पर खड़े होने की इजाज़त देता है। अण्णा हज़ारे इसी दुनिया की अगुआई कर रहे हैं। अगले चुनाव में हमें आपका इंतजÞार रहेगा लालू यादव जी।

 

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